घरप्रेरणासत, रजस और तमस

परिवार और मित्रगणों को पत्र

आदरणीय दाजी,

प्रकृति के साथ तालमेल में रहने का क्या अर्थ है?

 

प्रिय जोश,

हमें प्रकृति के साथ तालमेल में रहकर जीवन जीने के लिए कहा जाता है। प्रकृति के साथ तालमेल में रहने का अर्थ है अलिखित दिव्य नियमों का पालन करना। जो भी कार्य दिव्य नियमों के अनुरूप है उसे सात्त्विक कहा जा सकता है। मनुष्य के बनाए नियमों का पालन करना और उसी के अनुसार कार्य करना जिससे आपको खुशी मिलती है, उसे राजसिक कहा जा सकता है। जब न तो दिव्य नियमों का पालन किया जाता है और न ही मनुष्य द्वारा बनाए गए नियमों का और केवल अपने आप को संतुष्ट करने के लिए सभी नियमों को तोड़ा जाता है तब उसे तामसिक कहा जा सकता है। आप किस स्तर पर व किस चीज़ से अपने आप को जोड़ रहे हैं?

दिव्य नियमों का पालन करने और अपनी अंतरात्मा की बात मानने से अपने आप ही आपको शांति व संतोष मिल जाता है। वह अनुभव या अवस्था स्वर्गीय यानी सुखद होती है। सब नियमों को तोड़ने से आप बेचैन हो जाते हैं, भले ही आप अन्यथा व्यवहार करें और रामायण महाकाव्य के राक्षसों की भाँति ज़ोर से हँसने लगें। वह अनुभव या अवस्था स्वर्गीय नहीं होती और हम उसे नरक कहते हैं।

आनंदपूर्वक दिव्य नियमों का पालन करना ईश्वर की मर्ज़ी के प्रति पूर्ण स्वीकृति व समर्पण का प्रतीक है। यहाँ पर, "प्रिय प्रभु, जैसी आपकी मर्ज़ी वैसा ही हो" का मनोभाव बहुत सार्थक है।

आधुनिक कामकाजी जीवन में चिंतन, अंतरावलोकन, ध्यान और अच्छी बातों का पालन करने के लिए बहुत कम समय मिलता है, भले हम वह सब करना भी चाहें। लेकिन यदि हमें आध्यात्मिक रूप से प्रगति करनी है तो हमें भौतिक जीवन में भी आध्यात्मिकता लानी होगी क्योंकि यही एकमात्र समाधान है। हमें थोड़ा पीछे जाकर उन चीज़ों को पुनः अपनाना होगा जिनका महत्व सर्वाधिक है।

हमें कम से कम इतना समझने के काबिल बनना होगा कि हमारे कर्मों से सुख उत्पन्न हो रहा है या दुःख। हम में से अधिकांश लोग शुरुआत में परिणाम को समझ नहीं पाते। इसीलिए महान गुरुओं ने हम पर दया करके हमारे फ़ायदे के लिए कुछ नियम बनाए हैं ताकि हमारा कीमती समय बचे।

उदाहरण के लिए, क्या कोई इसके लिए नियम लिख सकता है कि किससे विवाह करना है या फिर उच्च शिक्षा के दौरान कौन सी डिग्री प्राप्त करनी है? वे कहेंगे कि जिससे आप प्रेम करते हो उससे विवाह करो और यह सुनिश्चित करो कि वह भी आपको प्रेम करता / करती है। हमारी गलती यह होती है कि हम रूप, व्यवहार, बातों, हैसियत आदि को प्रेम मान लेते हैं। इस भ्रम से हमारी समझ बदल जाती है, हम चीज़ों को स्पष्टतः देख नहीं पाते और अंततः हमें उसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है। हम परिवार या समाज के दबाव में आ जाते हैं। हम विभिन्न पूर्वाग्रहों और ज़िद से बंधे रहते हैं। इसकी तुलना में आकाश में मौजूद सभी ग्रह (यानी हमारा भाग्य) हम पर अधिक दयालु हैं।

"आप वही हैं जो आप खाते हैं," इस कथन का लोग जो अर्थ लगाते हैं, वह बड़ा हास्यास्पद है। वे कहते हैं कि यदि आप चिकन खाते हैं तो आप चिकन बन जाते हैं; यदि आप गाय का दूध पीते हैं तो आप गाय बन सकते हैं! इस तरह की सतही बहस का कोई फ़ायदा नहीं होता, भले ही वह नेक इरादे से की गई हो। कोई भी तर्कपूर्ण मन इसे स्वीकार नहीं करेगा। इसके बजाय, यह कहावत तब बहुत अच्छे से समझ में आती है जब हम खाद्य-पदार्थ की प्रकृति को गुणों की दृष्टि से समझें।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि विभिन्न खाद्य पदार्थों को उनके सूक्ष्म या ठोस गुणों के अनुसार ग्रहण किया जाए और इस पर भी ध्यान दें कि उन्हें कैसे ग्रहण किया जाए। वही सात्त्विक भोजन तामसिक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है यदि मन प्रकृति के साथ तालमेल में न हो या फिर उस भोजन को संदेहास्पद तरीके से प्राप्त किया गया हो।

'अक्षर सत्य' के अध्याय 1 को पढ़ते समय तीन गुणों पर मेरी वार्ता को ध्यान में रखें।

सुरक्षित रहें।

सस्नेह,

कमलेश


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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